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पृष्ठ:भारतवर्ष का इतिहास.djvu/९८

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द्वारपाल बनाया गया। पृथ्वीराज जयचन्द की बेटी को चाहता था। पाहुने को तरह बुलाया जाता तो उसके आने में संदेह ही क्या था। पर यह बड़ा अभिमानी था। द्वारपाल बनकर जाना स्वीकार न किया। उत्सव के दिन जब पृथ्वीराज न आया तो जयचन्द ने उसकी मूर्ति बनवाकर महल के फाटक पर खड़ी कर दी। स्वयंवर होने लगा। जो राजा दूर देश से इस आसरे में आये थे कि संयोगिता हमको बरेगी एक पांति में खड़े हो गये और संयोगिता को आज्ञा दी गई कि उनके बीच से चले और जिसे चाहे बर ले। संयोगिता के हाथ में फूलों की माला थी। वह बर देखती भालती पांति के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चली गई और फाटक पर जाकर पृथ्वीराज की मूर्ति के गले में उसने माला डाल दी। पृथ्वीराज भेस बदले अपने कुछ सिपाही साथ में लिये वहीं उपस्थित था। तुरन्त मण्डप में घुस गया और संयोगिता को अपने घोड़े पर बैठाकर दिल्ली की ओर ले उड़ा।

५—जयचन्द पृथ्वीराज से लड़ा पर उसे जीत न सका। उसने क्रोध में आकर नीचपने से शहाबुद्दीन के पास सन्देसा भेजा कि आप एक बार दिल्ली पर फिर चढ़ाई करें और मैं आपकी मदद करूंगा। शहाबुद्दीन पहलेही से बड़ी पलटन जमा किये बैठा था; और उसने ग़ोरी सरदारों और सेनापतियों को बहुत ही झिड़का था जो थानेश्वर के मैदान से भाग निकले थे; तोबड़ों में जौ का दाना भरवा कर उनके मुंह बन्धवाया और गदहों की तरह उनको शहर से निकलवा दिया था। जयचन्द का सन्देसा पाकर ११९३ ई॰ में फिर दिल्ली की तरफ़ चला। डेढ़ लाख सिपाही अच्छे अफ़गानी घोड़े पर सवार इसके साथ थे। अबकी बार जयचन्द और राठौर राजा पृथ्वीराज की सहायता को न आये। पृथ्वीराज अपने चौहानों को लेकर थानेश्वर के मदान में फिर