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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/१८२

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भारतेंदु-नाटकावली

से लंबी साँस लेकर और बॉह उठाकर ) अरे ब्रह्मा! सम्हाल अपनी सृष्टि को, नहीं तो परम तेजपुंज दीर्घ-तपोवर्द्धित मेरे आज इस असह्य क्रोध से सारा संसार नाश हो जायगा, अथवा संसार के नाश ही से क्या? ब्रह्मा का तो गर्व उसी दिन मैंने चूर्ण किया जिस दिन दूसरी सृष्टि बनाई, आज इस राजकुलांगार का अभि- मान चूर्ण करूँगा जो मिथ्या अहंकार के बल से जगत्में दानी प्रसिद्ध हो रहा है।

हरि०---( पैरों पर गिरके ) महाराज! क्षमा कीजिए, मैंने इस बुद्धि से नहीं कहा था, सारी पृथ्वी आपकी, मैं आपका, भला आप ऐसी क्षुद्र बात मुँह से निकालते हैं! ( ईषत् क्रोध से ) और आप बारंबार मुझे झूठा न कहिए। सुनिए, मेरी यह प्रतिज्ञा है---

"चंद टरै सूरज टरै, टरै जगत ब्यौहार।
मै दृढ़ श्री हरिचंद को, टरै न सत्य विचार॥"

विश्वा०---( क्रोध और अनादरपूर्वक हँसकर ) हहहह! सच है, सच है रे मूढ़। क्यों नहीं, आखिर सूर्यवंशी है। तो दे हमारी पृथ्वी।

हरि०---लीजिए, इसमें विलंब क्या है। मैंने तो आपके आगमन के पूर्व ही से अपना अधिकार छोड़ दिया है। ( पृथ्वी की और देखकर )