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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२०९

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भारतेंदु-नाटकावली

लाग से दूसरे सियार कैसे रोते हैं। उधर चिर्राइन फैलाती हुई चट-चट करती चिताएँ कैसी जल रही हैं, जिनमें कहीं से मांस के टुकडे उड़ते हैं, कहीं लोहू वा चरबी बहती है। आग का रंग मांस के संबंध से नीला-पीला हो रहा है, ज्वाला घूम-घूमकर निकलती है, कभी एक साथ धधक उठती है, कभी मंद हो जाती है। धुआँ चारो ओर छा रहा है। [ आगे देखकर आदर से ] अहा! यह वीभत्स व्यापार भी बड़ाई के योग्य है। शव! तुम धन्य हो कि इन पशुओं के इतने काम आते हो; अतएव कहा है---

"मरनो भलो विदेश को, जहाँ न अपुनो कोय।
माटी खॉय जनावरॉ, महा महोच्छव होय॥"

अहा! देखो।

सिर पै बैठ्यो काग अॉख दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहि स्यार अतिहि आनँद उर धारत॥
गिद्ध जाँघ कहँ खोदि खोदि कै मांस उचारत।
स्वान आँगुरिन काटि काटि के खान बिचारत॥

बहु चील नोचि लै जात तुच माद मढ़यो सबको हियो।
मनु ब्रह्मभोज जिजमान कोउ आजु भिखारिन कहँ दियो॥

अहा! शरीर भी कैसी निस्सार वस्तु है!