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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२२०

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सत्यहरिश्चंद्र

हम प्रतच्छ हरि-रूप जगत हमरे बल चालत।
जल-थल-नभ थिर मम प्रभाव मरजाद न टालत॥
हमहीं नर के मीत सदा साँचे हितकारी।
इक हमहीं सँग जात तजत जब पितु सुत नारी॥

सो हम नित थित इक सत्य में जाके बल सब जग जियो।
सोइ सत्य-परिन्छन नृपति को आजु भेष हम यह कियो॥

( कुछ सोचकर ) राजर्षि हरिश्चंद्र की दुःखपरंपरा अत्यंत शोचनीय और इनके चरित्र अत्यंत आश्चर्य के हैं। अथवा महात्माओ का यह स्वभाव ही होता है।

सहत बिबिध दुख मरि मिटत, भोगत लाखन सोग।
पै निज सत्य न छाँड़ाहीं, जे जग साँचे लोग॥
बरु सूरज पच्छिम उगे, बिंध्य तरै जल माहिं।
सत्यबीर जन पै कबहुँ निज बच टारत नाहिं॥


अथवा उनके मन इतने बड़े हैं कि दुःख को दुःख सुख को सुख गिनते ही नहीं। चलें उनके पास चलें। ( आगे बढ़कर और देखकर ) अरे! यही महात्मा हरिश्चंद्र हैं? ( प्रगट ) महाराज, कल्याण हो।

हरि०---( प्रणाम करके ) आइए योगिराज!

धर्म---महाराज, हम अर्थी हैं।

( हरिश्चन्द्र लज्जा और विकलता नाट्य करता है )