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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२५७

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भारतेंदु-नाटकावली

अब सपने में भी नहीं है। अह! वह श्रीगोविन्दाय जी के पधारने का सुख कहाँ तक कहें।

( धनदास और बनितादास आते हैं )

धनदास---कहो यार का तिगथो?

बनितादास---भाई साहेब, बड़ी देर से देख रहे हैं, कोई पंछी नजर नाहीं अावा।

धन०---भाई साहेब, अपने तो ऊ पंछी काम का जे भोजन सोजन दूनो दे।

बनिता---तोहरे सिद्धान्त से भाई साहेब हमरा काम तो नाहीं चलता।

धन०---तबै न सुरमा घुलाय के आँख पर चरणामृत लगाये हौ जे में पलकबाजी खूब चलै, हाँ एक पलक एहरो।

बनिता०---( हँसकर ) भाई साहेब अपने तो वैष्णव आदमी हैं, वैष्णविन से काम रक्खित है।

धन०---तो भला महाराज के कबौं समर्पन किये हौ कि नाही?

बनिता०---कौन चीज?

धन०---अरे कोई चौकाली ठल्ली मावड़ी पामरी ठोमली अपने घरवाली।

बनिता०---अरे भाई गोसँइयन पर तो ससुरी सब आपै भहराई। पड़थीं पवित्र होवै के वास्ते, हम का पहुँचैबे ।