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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२६४

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भारतेंदु-नाटकावली

चोरी भए पर पूलिस नौचै हाथ गले बिच ढॉसी।
गए कचहरी अमला नोचै मोचि बनावै घासी॥
फिरै उचक्का दे दे धक्का लूटै माल मवासी।
कैद भए की लाज तनिक नहिं बे-सरमी नंगा सी॥
साहेब के घर दौड़े जावै चंदा देहिं निकासी।
चरै बुखार नाम मंदिर का सुनतहि होय उदासी॥
घर की जोरू-लड़के भूके बने दास औ दासी।
दाल की मंडी रंडी पूजें मानो इनकी मासी॥
आप माल कचरै छानै उठि भोरहिं कागाबासी।
बापके तिथि दिन बाह्मन आगे धरै सड़ा औ बासी॥
करि बेवहार साक बाँधै बस पूरी दौलत दासी।
घालि रुपैया काढि दिवाला माल डेकारैं ठॉसी॥
काम-कथा अमृत सो पीयै समुझै ताहि विलासी।
रामनाम मुँह से नहिं निकलै सुनतहि आवै खाँसी॥
देखी तुमरी कासी भैया, देखो तुमरी कासी॥

भूरी०---कहो ई सरवा अपने सहर की एतनी निंदा कर गवा; तूँ लोग कुछ बोलत्यौ नाहीं?

गंगा०---भैया, अपना तो जिजमान है अपने न बोलैंगे चाहे दस गारी दे ले।

भंडे०---अपनो जिजमानै ठहरा।