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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/२६६

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भारतेंदु-नाटकावली

पर०---भाई अजब शहर है, लोग बिना बात ही लड़े पड़ते हैं।

( सुधाकर आता है )

( सब लोग आशीर्वाद, दंडवत्, आओ-आओ शिष्टाचार करते हैं )

गंगा–--भैया इनके दम के चैन है। ई अमीरन के खेलउना हैं।

झूरी०---खेलउना का हैं दाल, खजानची, खिदमतगार सबै कुछ हैं।

सुधाकर---तुम्हें साहब चर्रियै बूकना आता है।

भूरी०---चर्री का, हमहन झूठ बोलीलः; अरे बखत पड़े पर तूँ रंडी ले आवः, मंगल के मुजरा मिले ओमें दस्तूरी काटः, पैर दाबः, रुपया-पैसा अपने पास रक्खः, यारन के दूरे से झॉसा बतावः। ऐ! ले गुरु तोही कहः हम झूठ कहथई।

गंगा---अरे भैया बिचारे ब्राह्मण कोई तरह से अपना कालक्षेप करथै, ब्राह्मण अच्छे हैं।

भंडे०–--हाँ भाई न कोई के बुरे में, न भले में और इनमें एक बड़ी बात है कि इनकी चाल एक-रंगै हमेसा से देखी थै।

गंगा---और साहेब एक अमीर के पास रहै से इनकी चार जगह जान-पहिचान होय गई। अपनी बात अच्छी बनाय लिहिन है।

दूकान०---हों भाई, बजार में भी इनकी साक बँधी है।

सुधाकर---भया भया, यह पचड़ा जाने दो; कहो यह नई मूरत कौन है?