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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३०१

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भारतेंदु-नाटकावली

( नारदजी आते हैं )

शुक०---( आगे बढ़कर और गले से मिलकर ) आइए आइए, कहिए कुशल तो है? किस देश को पवित्र करते हुए आते हैं?

नारद---आप से महापुरुष के दर्शन हों और फिर भी कुसल न हो, यह बात तो सर्वथा असंभव है; और आप से तो कुशल पूछना ही व्यर्थ है।

शुक०---यह तो हुआ, अब कहिए आप आते कहाँ से हैं?

नारद---इस समय तो मैं श्रीवृंदावन से आता हूँ।

शुक०---अहा! आप धन्य हैं जो उस पवित्र भूमि से आते हैं। ( पैर छूकर ) धन्य है उस भूमि की रज, कहिए वहाँ क्या-क्या देखा?

नारद---वहाँ परम प्रेमानंदमयी श्रीब्रजवल्लभी लोगों का दर्शन करके अपने को पवित्र किया और उनकी विरहावस्था देखता बरसो वहीं भूला पड़ा रहा। अहा, ये श्रीगोपीजन धन्य हैं। इनके गुणगण कौन कह सकता है---

गोपिन की सरि कोऊ नाहीं।
जिन तृन-सम कुल-लाज-निगड़ सब तोखो हरिरस माहीं॥
जिन निज बस कीने नँदनंदन बिहरीं दै गलबॉहीं।
सब संतन के सीस रहौ चरन-छन की छाँहीं॥