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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/३४७

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श्रीचंद्रावली

देना यह कौन बात है। हाय! सबकी आँखो में हलकी हो गई। जहाँ जाओ वहाँ दुर दुर, उस पर यह गति। हाय! "भामिनी तें भौंड़ी करी, मानिनी तें मौड़ी करी, कौड़ी करी हीरा ते, कनौड़ी करी कुल तें।" तुम पर बड़ा क्रोध आता है और कुछ कहने को जी चाहता है। बस अब मैं गाली दूँगी। और क्या कहूँ, बस आप आप ही हौ; देखो गाली में भी तुम्हे मैं मर्मवाक्य कहूँगी---झूठे, निर्दय, निघृण, "निर्दय हृदय कपाट", बखेड़िये और निर्लज, ये सब तुम्हें सच्ची गालियाँ है; भला जो कुछ करना ही नहीं था तो इतना क्यों झूठ बके? किसने बकाया था? कूद-कूदकर प्रतिज्ञा करने बिना क्या डूबी जाती थी? झूठे! झूठे!! झूठे!!! झूठे ही नहीं वरंच विश्वासघातक! क्यो इतनी छाती ठोक और हाथ उठा-उठाकर लोगों को विश्वास दिया? आप ही सब मरते चाहे जहन्नुम में पड़ते, और उस पर तुर्रा यह है कि किसी को चाहे कितना भी दुखी देखें आपको कुछ घृणा तो होती ही नहीं। हाय-हाय! कैसे-कैसे दुखी लोग हैं---और मजा तो यह है कि सब धान बाइस पसेरी। चाहे आपके वास्ते दुखी हो, चाहे अपने संसार के दुःख से; आपको दोनों उल्लू फँसे हैं। इसी से तो "निर्दय हृदय कपाट" यह नाम है। भला क्या काम था कि इतना पचड़ा किया? किसने इस उपद्रव और