सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६९
भारतेंदु-नाटकावली

सब काम सिद्ध करेगा, इससे मेरा सब काम बन गया है परंतु चंद्रगुप्त सब राज्य का भार मेरे ही ऊपर रखकर सुख करता है। सच है, जो अपने बल बिना और अनेक दुःखों के भोगे बिना राज्य मिलता है वही सुख देता है।

क्योंकि---

अपने बल सों लावहीं जद्यपि मारि सिकार।
तदपि सुखी नहिं होत हैं, राजा-सिह-कुमार॥

( *यम का चिन्न हाथ में लिए योगी का वेष धारण किए दूत आता है )

दूत---

अरे, और देव को काम नहि, जम को करो प्रनाम।
जो दूजन के भक्त को, प्रान हरत परिनाम॥

और

उलटे ते हू बनत है, काज किए अति हेत।
जो जम जी सबको हरत, सोई जीविका देत।

तो इस घर में चलकर जमपट दिखाकर गावें। ( घूमता है )

शिष्य---रावलजी! ड्योढ़ी के भीतर न जाना।

दूत---अरे ब्राह्मण! यह किसका घर है?

शिष्य---हम लोगों के परम प्रसिद्ध गुरु चाणक्यजी का।

दूत---( हँसकर ) अरे ब्राह्मण, तब तो यह मेरे गुरुभाई ही का घर हैं; मुझे भीतर जाने दे, मैं उसको धर्मोपदेश करूँगा।


  • उस काल में एक चाल के फकीर जम का चित्र दिखलाकर

संसार की अनित्यता के गीत गाकर भीख माँगते थे।