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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४४

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४---धनंजय-विजय

मूल नाटक संस्कृत में है और इसके रचेता कांचन पंडित थे। इनके पिता का नाम नारायण था, जो शास्त्रार्थ में प्रसिद्ध थे। यह एक विद्वान-कुल में उत्पन्न हुए थे और स्वयं कई शास्त्रों में पारंगत थे। इसके सिवा नाटककार के विषय में और कुछ भी ज्ञात नहीं है। इसका समय भी संदिग्ध है। भारतेन्दु जी ने इस व्यायोग के सं० १५३७ वि० की एक हस्तलिखित प्रति का उल्लेख किया है, जिससे इनके समय को अंतिम सीमा अवश्य निश्चित हो जाती है।

भारतेन्दु जी के हिन्दी अनुवाद के पहिले इस व्यायोग का एक अनुवाद काश्मीर-नरेश महाराज रणवीरसिंह की प्राज्ञा से पं० छन्नूलाल द्वारा किया जा चुका था। यह अनुवाद सं० १९३२ में लीथे में प्रकाशित हुआ, जिसमें मूल, पद्यानुवाद तथा शेखर कृत वार्तिक सभी सम्मिलित हैं और इसके प्रति पृष्ठ में लीथो में एक साधारण चित्र भी दिया हुआ है। इसकी भाषा अत्यंत भ्रष्ट तथा पद्य शिथिल है। स्यात् अनुवाद के कारण हुई मूल की इस दुर्दशा को देखकर ही भारतेन्दु जी ने इसका दूसरा अनुवाद तैयार किया होगा, जो पहिले पहल हरिश्चन्द्र मैगजीन में सन् १८७३ ई० में प्रकाशित हुआ।

इस व्यायोग की कथा महाभारत के विराट पर्व से ली हुई है। बारह वर्ष वनवास करने के अनंतर पांडव गण द्रौपदी सहित अज्ञातवास करने के लिए मत्स्य-राज विराट के राज्य में जाकर सभी उसकी सेवा में गुप्त रूप से रहने लगे। द्रौपदी की