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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४४६

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मुद्राराक्षस

सिद्धा०---यह तो आप जानते ही हैं कि उस दुष्ट चाणक्य की बुराई करके फिर मैं पटने में घुस नहीं सकता, इससे कुछ दिन आप ही के चरणों की सेवा किया चाहता हूँ।

राक्षस---बहुत अच्छी बात है। हम लोग तो ऐसा चाहते ही थे, अच्छा है, यहीं रहो।

सिद्धार्थक---( हाथ जोड़कर ) बड़ी कृपा हुई।

राक्षस---मित्र शकटदास! ले जाओ, इसको उतारो और सब भोजनादिक का ठीक करो।

शकट०---जो आज्ञा।

( सिद्धार्थक को लेकर जाता है )

राक्षस---मित्र विराधगुप्त! अब तुम कुसुमपुर का वृत्तांत जो छूट गया था सो कहो। वहाँ के निवासियों को मेरी बातें अच्छी लगती हैं कि नहीं?

विराध०---बहुत अच्छी लगती हैं, वरन वे सब तो आप ही के अनुयायी हैं।

राक्षस---ऐसा क्यों?

विराध०---इसका कारण यह है कि मलयकेतु के निकलने के पीछे चाणक्य को चंद्रगुप्त ने कुछ चिढ़ा दिया और चाणक्य ने भी उसकी बात न सहकर चंद्रगुप्त की आज्ञा भंग करके उसको दुःखी कर रखा है, यह मैं भली भाँति जानता हूँ।