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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४४९

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भारतेंदु-नाटकावली

भार सों चारु सिंहासन के मुरछा में धरा परी धेनु सी पाइए।
छींटि के तापै गुलाब मिल्यौ जल चंदन ताकहँ जाइ जगाइए॥

(आकाश की ओर देखकर ) क्या कहते हो कि 'हम लोग अपने काम में लग रहे हैं?' अच्छा-अच्छा झटपट सब सिद्ध करो। देखो! वह महाराज चंद्रगुप्त आ पहुँचे।

बहु दिन श्रम करि नंद नृप बह्यो राज-धुर जौन।
बालेपन ही में लियौ चंद्र सीस निज तौन॥
डिगत न नेकहु विषम पथ दृढ प्रतिज्ञ दृढ गात।
गिरन चहत सम्हरत बहुरि नेकु न जिय घबरात॥

( नेपथ्य में---इधर महाराज इधर। राजा और प्रतिहारी आते हैं )

राजा---( आप ही आप ) राज उसी का नाम है जिसमें अपनी आज्ञा चले, दूसरे के भरोसे राज करना भी एक बोझा ढोना है। क्योंकि---

जो दूजे को हित करै तौ खोवै निज काज।
जो खोयो निज काज तौ कौन बात को राज॥
दूजे ही को हित करै तौ वह परबस मूढ़।
कठपुतरी सो स्वाद कछु पावै कबहुँ न कूढ़॥

और राज्य पाकर भी इस दुष्ट राजलक्ष्मी को सम्हालना बहुत कठिन है। क्योंकि---

कूर सदा भाखत पियहि चंचल सहज सुभाव।
नर गुन औगुन नहिं लखति सजन खल सम भाव॥