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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४६९

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भारतेंदु-नाटकावली

तुम जानौ चाणक्य सो नृप चंदहि लरवाय।
सहजहि लै हैं राज हम निज बल बुद्धि उपाय॥
सो हम तुमही कहँ छलन कियो क्रोध परकास।
तुमरोई करिहै उलटि यह तुव भेद बिनास॥

( क्रोध प्रकट करता हुआ चला जाता है )

चंद्र०---आर्य वैहीनर! "चाणक्य का अनादर करके आज से चंद्रगुप्त सब काम-काज आप ही सम्हालेंगे," यह लोगों से कह दो।

कंचुकी---( आप ही आप ) अरे! आज महाराज ने चाणक्य के पहले आर्य शब्द नहीं कहा! क्यों? क्या सचमुच अधिकार छीन लिया? वा इसमें महाराज का क्या दोष है!

सचिव-दोष सों होत हैं नृपहु बुरे ततकाल।
हाथीवान-प्रमाद सों गज कहवावत ब्याल॥

चंद्र०---क्यों जी? क्या सोच रहे हो?

कंचुकी---यही कि महाराज को महाराज शब्द अब यथार्थ शोभा देता है।

चंद्र०---( आप ही आप ) इन्हीं लोगों के धोखा खाने से आर्य का काम होगा। ( प्रगट ) शोणोत्तरे! इस सूखी कलह से हमारा सिर दुखने लगा, इससे शयनगृह का मार्ग दिखलाओ।