पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४८३

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मुद्राराक्षस

चाणक्य को अधिकार छूट्यौ चंद्र है राजा नए।
पुर नंद में अनुरक्त तुम निज बल सहित चढते भए॥

जब आप हम---( कहकर लज्जा से कुछ ठहर जाता है )

तुव बस सकल उद्यम सहित रन मति करी।
वह कौन सी नृप! बात जो नहिं सिद्धि ह्वै है ता घरी॥

मलय०---अमात्य! जो अब आप ऐसा लड़ाई का समय देखते हैं तो देर करके क्यो बैठे हैं? देखिए---

इनको ऊँचो सीस है, वाको उच्च करार।
श्याम दोऊ, वह जल स्त्रवत, ये गंडन मधु-धार॥
उतै भँवर को शब्द, इत भँवर करत गुंजार।
निज सम तेहि लखि नासिहैं, दंतन तोरि कछार॥
सीस सोन सिंदूर सो ते मतंग बल दाप।
सोन सहज ही सोखिहै निश्चय जानहु आप॥

और भी---

गरजि गरजि गंभीर रव, बरसि बरसि मधु-धार।
सत्रु-नगर गज घेरिहैं, घन जिमि विविध पहार॥

( शस्त्र उठाकर भागुरायण के साथ जाता है )

राक्षस---कोई है?

( प्रियंबदक आता है )

प्रियंबदक---आज्ञा।