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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४९१

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३८५
मुद्राराक्षस

भासु०---जो आज्ञा।

[ जाता है

( क्षपणक आता है )

क्षप०---आवक को धर्म लाभ हो!

भागु०---( छल से उसकी ओर देखकर ) यह तो राक्षस का मित्र जीवसिद्धि है। ( प्रगट ) भदंत! तुम नगर में राक्षस के किसी काम से जाते होगे।

तप०---( कान पर हाथ रखकर ) छी-छी! हमसे राक्षस वा पिशाच से क्या काम?

भागु०---आज तुमसे और मित्र से कुछ प्रेम-कलह हुआ है, पर यह तो बताओ कि राक्षस ने तुम्हारा किया है?

क्षप०---राक्षस ने कुछ अपराध नहीं किया है, अपराधी तो हम हैं।

भागु०----ह ह ह ह! भदंत! तुम्हारे इस कहने से तो मुझको सुनने की और भी उत्कंठा होती है।

मलय०---( आप ही आप ) मुझको भी।

भागु०---तो भदंत! कहते क्यों नहीं?

क्षप०---तुम सुनके क्या करोगे?

भागु०---तो जाने दो, हमें कुछ आग्रह नहीं है, गुप्त हो तो मत कहो।

भा० ना०---२५