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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/४९३

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मुद्राराक्षस

कन्या का नाम भी नहीं जानता; यह घोर कर्म उस दुर्बुद्धि राक्षस ही ने किया है।

भागु०---हाय-हाय! बड़े कष्ट की बात है। लो, मुहर तो तुमको देते हैं, पर कुमार को भी यह बात सुना दो।

मलय०---( आगे बढ़कर )

सुन्यो मित्र, श्रुति-भेद-कर शत्रु किया जो हाल।
पिता-मरन को मोहि दुख दुगुन भयो एहि काल॥

क्षप०---( आप ही आप ) मलयकेतु दुष्ट ने यह बात सुन ली तो मेरा काम हो गया।

[ जाता है

मलय०---( दाँत पीसकर ऊपर देखकर ) अरे राक्षस!

जिन तोपै विश्वास करि सौंप्यो सब धन धाम।
ताहि मारि दुख दै सबन साँचो किय निज नाम॥

भागु०---( आप ही आप ) आर्य चाणक्य की आज्ञा है कि "अमात्य राक्षस के प्राण की सर्वथा रक्षा करना" इससे अब बात फेरें। ( प्रकाश ) कुमार! इतना आवेग मत कीजिए। आप आसन पर बैठिए तो मैं कुछ निवेदन करुँ।

मलय०---मित्र, क्या कहते हो? कहो। ( बैठ जाता है )

भागु०---कुमार! बात यह है कि अर्थशास्त्रवालों की मित्रता और शत्रुता अर्थ ही के अनुसार होती है, साधारण लोगों की भाँति इच्छानुसार नहीं होती। उस समय