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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५८२

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भारतदुर्दशा


हैं। हमारे दो स्वरूप हैं, एक आध्यात्मिक और एक आधिभौतिक, जो लोक में अज्ञान और अँधेरे के नाम से प्रसिद्ध है। सुनते हैं कि भारतवर्ष में भेजने को मुझे मेरे परम पूज्य मित्र दुर्दैव महाराज ने आज बुलाया है। चलें देखें क्या कहते हैं। (आगे बढकर) महाराज की जय हो, कहिए, क्या अनुमति है?


भारतदु०--आओ मित्र ! तुम्हारे बिना तो सब सूना था। यद्यपि मैंने अपने बहुत से लोग भारतविजय को भेजे हैं पर तुम्हारे बिना सब निर्बल हैं। मुझको तुम्हारा बड़ा भरोसा है, अब तुमको भी वहाँ जाना होगा।


अंध०--आपके काम के वास्ते भारत क्या वस्तु है, कहिए मैं विलायत जाऊँ।


भारतदु०--नहीं, विलायत जाने का अभी समय नहीं, अभी वहाँ त्रेता, द्वापर है।


अंध--नहीं, मैंने एक बात कही। भला जब तक वहाँ दुष्टा विद्या का प्राबल्य है, मैं वहाँ जाही के क्या करूँगा ! गैस और मैगनीशिया से मेरी प्रतिष्ठा भंग न हो जायगी।


भारतदु०--हाँ, तो तुम हिंदुस्तान में जाओ और जिसमें हमारा हित हो सो करो। बस "बहुत बुझाइ तुमहिं का कहऊँ, परम चतुर मैं जानत अहऊँ।"