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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५८४

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भारतदुर्दशा


इनसों कछू आस नहिं ये तो सब बिधि बुधि-बल-हीन।
बिना एकता-बुद्धि-कला के भए सबहि बिधि दीन॥
बोझ लादि कै पैर छानि के निज-सुख करहु प्रहार।
ये रासम से कछु नहिं कहिहैं मानहु छमा-अगार॥
"हित अनहित पशु पंछी जाना" पै ये जानहिं नाहिं।
भूले रहत आपुने रँग मैं फँसे मूढ़ता माहिं॥
जे न सुनहि हित, भलो करहिं नहि तिनसों आसा कौन।
डंका दै निज सैन साजि अब करहु उतै सब गौन॥


(जवनिका गिरती है)

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भा० ना०--३१