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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/५९७

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भारतदुर्दशा

सोई व्यास अरु राम के बंस सबै संतान।
ये मेरे भारत भरे सोइ गुन रूप समान॥
सोई बंस रुधिर वही सोई मन बिस्वास।
वही वासना चित वही आसय वही बिलास॥
कोटि कोटि ऋषि पुन्य तन कोटि कोटि अतिसूर।
कोटि कोटि बुध मधुर कवि मिले यहाँ की धूर॥
सोइ भारत की आज यह भई दुरदसा हाय।
कहा करै कित जायँ नहिं सूझत कछू उपाय॥

(भारत को फिर उठाने की अनेक चेष्टा करके उपाय निष्फल होने पर रोकर)


हा ! भारतवर्ष को ऐसी मोहनिद्रा ने घेरा है कि अब इस के उठने की आशा नहीं। सच है, जो जान-बूझकर सोता है उसे कौन जगा सकेगा? हा देव ! तेरे विचित्र चरित्र हैं, जो कल राज करता था वह आज जूते में टॉका उधार लगवाता है। कल जो हाथी पर सवार फिरते थे आज नंगे पाँव बन-बन की धूल उड़ाते फिरते हैं। कल जिनके घर लड़के-लड़कियो के कोलाहल से कान नहीं दिया जाता था, आज उनका नाम लेवा और पानी देवा कोई नहीं बचा और कल जो घर अन्न धन पूत लक्ष्मी हर तरह से भरे-पूरे थे आज उन घरों में तू ने दिया बालनेवाला भी नहीं छोड़ा।