सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५३४
भारतेंदु-नाटकावली

तौ ये कितने नीच कहा इनको बल भारी।
सिंह जगे कहुँ स्वान ठहरिहै समर मँझारी॥
पदतल इन कहँ दलहु कीट त्रिन सरिस जवनचय।
तनिकहु संक न करहु धर्म जित जय तित निश्चय॥
आर्य वंश को बधन पुन्य जा अधम धर्म मैं।
गोभक्षन द्विज-श्रुति-हिंसन नित जासु कर्म मैं॥
तिनको तुरितहिं हतौ मिलै रन कै घर माहीं।
इन दुष्टन सों पाप कियेहूँ पुन्य सदाहीं॥
चिउँटिहु पदतल दबे डसत ह्वै तुच्छ जंतु इक।
ये प्रतच्छ अरि इनहिं उपेछै जौन ताहि धिक॥
धिक तिन कहँ जे आर्य होइ जवनन को चाहैं।
धिक तिन कहँ जे इनसो कछु संबंध निबाहै॥
उठहु बीर तरवार खींचि मारहु घन संगर।
लोह-लेखनी लिखहु आर्य-बल जवन-हृदय पर॥
मारू बाजे बजै कहौ धौंसा घहराहीं।
उड़हिं पताका सत्रुहृदय लखि-लखि थहराहीं॥
चारन बोलहिं आर्य-सुजस बंदी गुन गावैं।
छुटहिं तोप घनघोर सबै बंदूक चलावै॥
चमकहिं असि भाले दमकहिं ठनकहिं तन बखतर।
हींसहिं हय झनकहिं रथ गज चिक्करहिं समर थर॥
छन महँ नासहिं आर्य नीच जवनन कहँ करि छय।
कहहु सबै भारत जय भारत जय भारत जय॥