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पृष्ठ:भारतेंदु नाटकावली.djvu/६८०

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सतीप्रताप


तक प्रेम नहीं। पत्नी का सुख एक-मात्र पति की सेवा है। जिस बात में प्रियतम की रुचि उसी में सहधर्मिणी की रुचि। अहा! वह भी कोई धन्य दिन आवेगा जब हम भी अपने प्राणाराध्य देवता प्रियतम पति की चरणसेवा में नियुक्त होगी। बृद्ध श्वशुर और सास के हेतु पाक आदि निर्माण करके उनका परितोष करेंगी। कुसुम, दुर्वा, तुलसी समिधा इत्यादि बीनने को पति के साथ वन में घूमेंगी। परिश्रम से थकित प्राणनायक के स्वेद-सीकर अपने अंचल से पोंछकर मंद-मंद वनपत्र के व्यजनवायु से उनका श्रीअंग शीतल और चरण-संवाहनादि से श्रमगत करेंगी। (नेत्र से आँसू गिरते हैं)

(गान करते हुए सखीगण का आगमन)

(ठुमरी)

सखीत्रय--
देखो मेरी नई जोगिनियाँ आई हो--जोगी पिय मन भाई हो।
खुले केस गोरे मुख सोहत जोहत दूग सुखदाई हो॥
नव छाती गाती कसि बाँधी कर जप माल सुहाई हो।
तन कंचन दुति बसन गेरुआ दूनी छवि उपजाई हो॥
देखो मेरी नई जोगिनियाँ आई हो।

(सावित्री के पास जाकर)