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पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४८३

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श्री चंद्रावली नाटिका सं. १९३३ सन् १८७६ में छपा मौलिक नाटकाहसका संस्कृत अनुवाद सं. १९३५ हरिश्चंद्र चंद्रिका में क्रमश: छपा था, यह अनुवाद पं. गोपालशास्त्री ने किया था। सं. समर्पण प्यारे! लो तुम्हारी चंद्रावली तुम्है समर्पित है। अंगीकार तो किया ही है इस पुस्तक को भी उन्हीं की हानि से अंगीकार करो। इस में तुम्हारे उस प्रेम का वर्णन है, इस प्रेम का नहीं जो संसार में प्रचलित है। हाँ एक अपराध तो हुआ जो अवश्य क्षमा करना ही होगा। वह यह कि प्रेस की दशा छाप कर प्रसिस की गई। बा प्रसिद्ध करने ही से क्या जो अधिकारी नही है उन के समझही में न आवेगा। तुम्हारी कुछ विचित्र गति हैं। हमी को देखो। जब अपराधों को स्मरण करो तब ऐसे कि कुछ कहना ही नहीं। क्षण भर जीने के योग्य नहीं । पृथ्वी पर पैर धरने को जगह नहीं मुंह दिखाने के लायक नहीं। और जो यों देखो तो ये लम्बे लम्बे मनोरथ । यह बोलचाल। यह डिठाई कि तुम्हारा सिद्धान्त कह डालना। जो हो इस दूध खटाई की एकत्र स्थिति का कारण तुम्हीं जानो। इसमें कोई संदेह नहीं कि जैसे हों तुम्हारे बनते हैं । अत्तएव क्षमा समुद्र! क्षमा करो। इसी में नियहि है। बस- भाद्रपद कृष्ण १४ सं. १९३३ हरिश्चन्द्र

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श्री चन्द्रावली ४३९