सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/७५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राजतरंगिणी की समालोचना जिस महाग्रंथ के कारण हम लोग आज दिन कश्मीर का इतिहास प्रत्यक्ष करते हैं उसके विषय में भी कुछ कहना यहाँ बहुत आवश्यक है । इस ग्रंथ को कल्हण कवि ने शाके एक हजार सत्तर १०७० में बनाया था । उस समय तीसरे गोनर्द से तेईस सौ तीस बरस बीत चुके थे । इस ग्रंथ की संस्कृत क्लिष्ट और एक विचित्र शैली की है । कवि के स्वभाव का जहाँ तक परिचय मिला है ऐसा जाना जाता है कि वह उद्धत और अभिमानी था, किंतु साथ ही यह भी है कि उसकी गवेषणा अत्यंत गंभीर थी । नीलपुराण छोड़ कर ग्यारह प्राचीन ग्रंथ इसने इतिहास के देखे थे । केवल इन्हीं ग्रंथों के भरोसे इसने यह ग्रंथ नहीं बनाया वरंच आजकल के पुरातत्ववेत्ता (Antiquarian) की भांति प्राचीन राजाओं के शासनपत्र, दानपत्र तथा शिवालय आदि की लिपि भी इसने देखी थी । (प्रथम तरंग १५ श्लोक देखो) यह मंत्री का पुत्र था, इससे संभव है कि इन वस्तुओं को देखने में इसको इतना परिश्रम न पड़ा होगा जितना यदि कोई साधारण कवि बनाता तो उसको पड़ता । इस ग्रंथ में आठ हजार श्लोक हैं । साढ़े छ सौ बरस कलियुग बीते कौरव-पांडवों का युद्ध हुआ था. यह बात इसी ने प्रचलित की है। जरासंघ के युद्ध में कश्मीर का पहला राजा गोनदं मारा गया । यहाँ से कथा का आरंभ है । इसी आदि गोनर्द के पुत्र को श्रीकृष्ण ने गंधार देश के स्वयंवर में मारा और उस की सगर्भा रानी को राज्य पर बैठाया । उस समय श्रीकृष्ण ने कश्मीर की महिमा में एक पुराण का श्लोक कहा । (१ त. ३२ तक) यही प्रकरण इस बात का प्रमाण है कि कश्मीर का राज्य बहुत दिन से प्रतिष्ठित है । इस रानी के पुत्र का नाम द्वितीय गोनद हुआ, जो महाभारत के युद्ध में मारा गया । इसी से स्पष्ट है कि पूर्वोक्त तीनों राजा जवानी ही में मरे, क्योंकि एक पांडवों के काल में तीनों का वर्णन आया है। इन लोगों के अनेक काल पीछे अशोक राजा जैनी हुआ । इसी ने श्रीनगर बसाया । इसके पीछे जलौकराजा प्रतापी हुआ, जिसने कान्यकुब्जादि देश जीता । यह शैव था । (भारतवर्ष में मूर्तिपूजा और शैव वैष्णवादि मत बहुत ही थोड़े काल से चले हैं यह कहने वाले महात्मागण इस प्रसंग को आँख खोल कर पढ़ें (१ त. ११३ श्लो.) । फिर हुष्क, जुष्क और कनिष्क ये तीन विदेशी (Bactro-Indian tribe) राजा हुए । इनके समय में शाक्य सिंह को हुए डेढ़ सौ बरस हुए थे । (१ त. १७२ श्लोक) इससे स्पष्ट होता है कि राजतरंगिणी के हिसाब से शाक्यसिंह को हुए पच्चीस सौ बरस हुए । इसी समय में नागर्जुन नामक सिद्ध भी हुआ । इनके पीछे अभिमन्यु के समय में चंद्राचार्य ने व्याकरण के महाभाष्य का प्रचार किया और एक दूसरे चंद्रदेव ने बौद्रों को जीता । कुछ काल पीछे मिहिरकुल नामक एक राजा हुआ । इसके समय की एक घटना विचारने के योग्य है । वह यह कि इसकी रानी सिंहल का बना रेशमी कपड़ा पहने थी । उस पर वहाँ के राजा के पैर की सोनहली छाप थी । इस पर कश्मीर के राजा ने बड़ा क्रोध किया और लंका जीतने चला । तब लंकावालों ने 'यमुषदेव' नामक सूर्य के बिंब के मापे का कपड़ा दे कर उससे मेल किया । (१त. ३०० श्लोक) इससे स्पष्ट होता है कि चांदी सोने से कपड़ा छापना लंका में तभी से प्रचलित था । अद्यापि दक्षिण हैदराबाद में (लंका के समीप) छापा अच्छा होता है। उस समय तक भट्टि १. इस ग्रंथकर्ता के पिता श्रीयुत कविवर गिरिधरदास जी ने अपने जरासंधवध नामक महाकाव्य में जरासंध की सैना में कश्मीर के आदि गोनर्द के वर्णन में कई एक छंद लिखा है वह भी प्रकाश किया जाता है । (३ सर्ग ४० छंद) चलेउ भूप गोनर्द वर्दवाहन समान बल, संग लिये बहु मर्द सर्द लखि होत अपर दल । फेटा सीस लपेटा गल मुकुता की माला, सिर केसर को घरे पचरंग दुसाला । रथ चारु राऊ सोहती रूप सबन मन मोहतो कश्मीर भूप भरि रिसि लसी मथुगपुर दिसि जोहतो ।। (६ सर्ग २५ छंद) भारतेन्दु समग्र ७१०