(६२) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न इमि भाषत हैं हरिचन्द पिया, अहो लाडिली देर न यामे करो। बलि झूलो झुलाओ झुको उझको, एहि पापै पतिव्रत ता धरो॥" सब से पहिली ठुमरी यह बनाई- “पछितात गुजरिया घर मे खरी॥ अब लग श्यामसुन्दर नहिं आए दुख दाइन भई रात अंधरिया। बैठत उठत सेज पर भामिनि पिया बिना मोरी सूनी सेजरिया ।" सब से पहिले अपने पिता का बनाया ग्रन्थ "भारतीभूषण" शिला-यन्त्र (लीथोग्राफ) मे छपवाया। सब से पहिला नाटक "विद्यासुन्दर" बनाया। नवीन रसो की कल्पना। इनकी बुद्धि का विकाश अत्यन्त अल्पवय मे ही पूरा पूरा हो गया था। सस्कृत मे कविता रचने की सामथ्य थी, समस्यापूर्ति बात की बात मे करते थे। उस समय की इनकी समस्याएँ "कवि बचन सुधा" तथा मेगजीन मे प्रकाशित हुई हैं जिन्हें देखकर आश्चय होता है। सब से बढकर आश्चय की घटना सुनिए । पण्डित ताराचरण तर्करत्न काशिराज महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायण सिह बहादुर के समापण्डित थे, कविताशक्ति इनकी परम आदरणीय थी, ऐसे कवि इस समय कम होते हैं। विद्वान् ऐसे थे कि स्वामी दयानन्द सरस्वती सरीखे विद्वान् से इनका शास्त्रार्थ प्रसिद्ध है। उन पण्डित जी ने "शृङ्गार रत्नाकर" नामक संस्कृत मे शृङ्गाररस विषयक एक काव्य-ग्रन्थ काशिराज की आज्ञा से सम्वत १९१९ (सन् १८६२) मे बनाकर छपवाया है। उस समय बालक हरिश्चन्द्र की अवस्था केवल १२ वर्ष की थी, परन्तु इस बालकवि की प्रखर बुद्धि ने प्रौढ कवि तर्करत्न को मोहित कर लिया था, उन्हें भी इन की युक्ति युक्त उक्तियो को प्रादर के साथ मान्य करके अपने ग्रन्थ मे लिखना पडा था। साहित्यकारो ने सदा से नव ही रसो का वर्णन किया है, परन्तु हरिश्चन्द्र की सम्मति मे ४ रस और अधिक होने चाहिए। वात्सल्य, सख्य, भक्ति और प्रानन्द रस अधिक मानते थे। इनका कथन था कि इन चारो का भाव, शृङ्गार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शात, इन, नवो रसो मे से किसी मे समाविष्ट नहीं होता, अतएव इन चारो