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पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१५८

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१४८ भारतेंदु हरिश्चन्द्र की एक मात्र संतान कहलाने का सौभाग्य प्राप्त था, इससे यह सब रोगों से मुक्त हो गई। इनकी शिक्षा का भी अच्छा प्रबन्ध हुआ था। यह हिन्दी तथा बंगला अच्छी तरह जानती थीं और संस्कृत का इतना ज्ञान था. श्रीमद्भागवत आदि का परायण कर लेती थीं । इनका विवाह सं १९३७ वि० के वैशाख मास (सन् १८८० की मई ) में गोलोक वासी बा० बुलाकीदास जी सोनावाले के भाई बा० देवीप्रसाद जी के पुत्र स्वर्गीय बा० बलदेवदास जी से भारतेन्दु जी ने स्वयं किया था। इन्हीं के विवाह में गाली बन्द की गई थी और पत्तलें परोसकर तब जाति भाइयों को बैठाया गया था। उसके पहिले जाति भाइयों को बैठाकर तव पत्तलें परसी जाती थीं, जिस कार्य में प्रायः आघ घंटे लग जाते थे। इनमें दो असुविधाएँ थीं। एक तो अच्छी अच्छी खाद्य वस्तु सामने रहते हुए भी लोग बैठे हुये केवल सुगंधि लिया करते थे और दूसरे उन्हें गाली सुनने का भी अधिक समय तक मज़ा मिला करता था। उसी समय से गालीगायन कम होता गया और अब प्राय: बंद सा हो गया है। यह विवाह बड़े धूम धाम से हुआ था। इनका नाम श्रीमती विद्यावती था। इन्हें पाँच पुत्र तथा तीन पुत्रियाँ हुई थीं। एक पुत्री विवाहयोग्य होकर तथा दो शैशवावस्था ही में कालकवलित हो गई। पुत्र पाँचों वर्तमान हैं। इनके नाम वयानुक्रम से वा० ब्रजरमणदास, ब्रजरत्नदास ( ननिहाल का नाम रेवतीरमणदास ), ब्रज-मोहन- दास, ब्रजजीवनदास और ब्रजभूषणदास हैं। प्रथम हिन्दी तथा उदू का ज्ञान प्राप्त कर कोठी के काम में लग गए और अन्य सभों ने अंगरेज़ी की शिक्षा पायी । द्वितीय इस चरित्र का लेखक है। तृतीय तथा पंचम ने एंट्रेस पास कर आगे पढ़ना छोड़ दिया। इन्होंने गृह पर ही संस्कृत का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया है।