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पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२१७

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२०८ भारतेंदु हरिश्चन्द्र उन्होंने 'नाटक' ही रखा है । मुद्राराक्षस की भूमिका में लिखते हैं कि 'नाटकों के वर्णन का विषय भी इसके साथ दिया जाय किन्तु मित्रों के अनुरोध से यह विषय स्वतंत्र पुस्तकाकार मुद्रित हुआ। इस पुस्तक की रचना में संस्कृत के नाट्य-शास्त्र, दशरूपक आदि तथा अंग्रेजी को हिन्दू थिएटर्स आदि पुस्तकों से सहायता ली गई थी। इस में नाटक के भेद तथा उसके अंग प्रत्यंग का वर्णन दिया गया है। साथ ही संस्कृत तथाः हिन्दी नाट्यकला का इतिहास संक्षेप में दे दिया गया है। यह पुस्तक भी परिश्रम के साथ लिखी गई है । इनके समय तक प्राप्त संस्कृत तथा हिन्दी नाटकों की तालिका भी इसमें दे दी गई है. जिससे इस ग्रंथ का महत्त्व बढ़ गया है। भारतेन्दु जी की इन रचनाओं की भूमिकाओं, समर्पणों तथा प्रस्तावनाओं से समय समय पर उनका मानसिक अवस्थाओं पर प्रकाश पड़ता है, जिनका उपयोग कवि की जीवनी में किया गया है। राजभक्ति-विषयक भारतेन्दु जी ने स्वयं राजभक्ति पूर्ण अनेक रचनाएँ की हैं तथा अन्य लोगों से भी पुरस्कारादि देकर लिखाकर संकलित. किया है। इन कृतियों के रहते हुए भी जिन लोगों ने उनपर राजद्रोही होने का दोष लगाया था और जिन लोगों ने उस कथन पर विश्वास किया था उन सभी के हृदय की आँखें पक्षपात के कारण फूटी हुई थीं। भारतेन्दु जी का रचनाकाल सं० १९२४ से सं० १९४१ तक था और यह वह समय था जब भारतवर्ष में पूर्ण शांति नहीं स्थापित को चुकी थी। उनके जन्मस्थान काशी ही में उन्हीं के समय संध्या के बाद किसी अमीर आदमी का आगे पीछे दस पाँच सिपाही साथ लिए बिना निकलना कठिन: