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पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३५१

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३४४ [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र नाश हो जाते हैं और जिसके चित्त में आते ही संसार का निगढ़ आप से पाप खुल जाता है, वह किसी को नहीं मिली।' 'इस मदिरा को शिवजी ने पान किया है और कोई क्या पियेगा ? जिसके प्रभाव से अद्धींग में बैठी पार्वती भी उनको विकार नहीं कर सकतीं, धन्य है, धन्य है, पौर दूसरा कौन ऐसा है ? नहीं, नहीं ब्रज की गोपियों ने इन्हें भी जीत लिया है । अहा, इनका कैसा विलक्षण प्रेम है कि अकथनीय और प्रकरणीय है क्योंकि जहाँ माहात्म्य-ज्ञान होता है. वहाँ प्रेम नहीं होता और जहाँ पूर्ण प्रीति होती है वहाँ माहात्म्य ज्ञान नहीं होता।' भक्ति में माहात्म्य ज्ञान तथा प्रेम दोनों ही होने चाहिएँ । भक्तितत्व की विवेचना करने के पहिले भक्ति के विकास पर कुछ विचार करना जरूरी है। मानव जाति आदिम काल में बड़े बड़े नगर बसा कर नहीं रहती थी प्रत्युत् कुछ परिवार एक स्थान पर बस जाते थे और कृषि तथा पशु पालन कर जीवन निर्वाह करते थे। खेती, पशु तथा मनुष्य संबंधी अनेक प्रकार के कष्ट भी इन्हें मेलने पड़ते थे। ये सभी कष्ट अपनी ही कृति के परिणाम न थे, इस लिये वे किसी परोक्ष शक्ति द्वारा प्रेरित माने जाने लगे और उस शक्ति के प्रति इनमें भय की उत्पत्ति हुई। तब ऐसी शक्ति की अपनी अपनी परिस्थिति के अनुकूल भाव- नाएँ की गई और उन्हें तुष्ट रखने के लिये बलिदान भादि देकर वे उन्हें पूजने लगे। प्रेतपूजा, नागपूजा आदि उसी आदिम काल के उपासना के द्योतक हैं। इसके अनंतर केवल दुःख ही दूर करना ध्येय नहीं रह गया वरन् अधिक सुख पाने की इच्छा मनुष्यों में उत्पन्न हुई। वर्षा से कृषि को लाभ पहुँचता है, इसलिये उसके देवता इन्द्र की भावना की गई। जलदेवता वरुण, धनदेवता कुवेर, स्वयं प्रकाशमान प्रत्यक्ष देव सूर्य आदि