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पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/६२

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४६ पूर्वज-गण गया है, जो अब प्राप्त है। पुराने संस्करण की केवल कुछ सुरक्षित प्रतियाँ कभी दिखला जाती हैं। इस काव्य की कथा में कंस बध पर क्रुद्ध होकर जरासंध का मथुरा पर चढ़ाई करना, दोनों पक्ष की सेनाओं के वीरों का वर्णन, मथुरा का घेरा, युद्धारंभ और पश्चिम तथा उत्तर के द्वारों पर की लड़ाई का वर्णन आया है। संस्कृत के सर्ग अपूर्ण था, जिसे इस ग्रंथ के लेखक ने पूरा किया है। संस्कृत के सर्ग बंध महाकाव्य के रूप में ही इसकी रचना हुई। यह वर्णनात्मक काव्य है, इससे कथा भाग इसमें कम है। सैन्य संचालन, वीरों की दर्पोक्तियाँ सैन्य चतुरंग के वर्णन आदि से काव्य भरा है। यमक आदि से ग्रंथ परिप्लुप्त है । गजबंध, अश्वबंध आदि चित्र काव्य भी हैं। वीर रसपूर्ण होते हुए भी इसमें शब्दी के तोड़ने-मरोड़ने, पिच्ची करने का प्रयास नहीं किया है, तिस पर भी ओज में कभी नहीं आने पाई है। इन ग्यारह सा में ७०० के लगभग यह हैं। चतुरंग पंचक नाम से अश्व, हाथी, रथ, पदति के पाँच पाँच कवित्त अलग पुस्तकाकार सन् १८६६ ई० में भारतेन्दु जी की आज्ञा से गोपी- नाथ पाठक ने लाइट छापाखाना में छापा था । उदाहरण- [निर्मात्रिक चित्र, छप्पय] फरफर फरकत श्रधर चपल हय चरन चपल सम । नयन दहन बतरनत्र समद तत लखत अपर जम ।। परम घरमघर धरम करम कर सरस गरम रन । घरत कनकमय बरन परम बल नदत सजल धन ॥ गरधर हरसम जस जग फबल नवत सकन नर बर जबर। पर धरत अचल हलचल करत टरत सभय बनकर बबर॥