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पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/९८

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वह न रोजे रखता, न मुसलमानी धर्म की परवाह करता था, खूब शराब और अफीम का सेवन करता था। एक बार इसने पादरियों को बुलाकर पूछा---

"सुअर का मांस स्वाद में कैसा होता है?"

इस पर पादरियों ने उसकी तारीफ की। बादशाह का जी ललचाया, और पादरियों के घर जाकर शराब पी और सुअर का मांस खाया। इसके बाद वह खुल्लमखुल्ला खाने लगा। 'मनूची' कहता है कि मौलवियों को चिढ़ाने के लिये उसने सोने की सुअर की मूर्तियाँ बनवा कर महल में रख छोड़ी थीं और प्रातःकाल उन्हीं का मुँह देखकर उठता था और कहता था---'मैं मुसलमान का मुँह देखने के बजाय सुअर का मुँह देखना अधिक अच्छा समझता हूँ।' ये सोने के सुअर शाही महल में शाहजहाँ के समय तक रहे, जिसने उन्हें लाहौर के किले में शाही तख्त के सामने जमीन में गढ़वा दिया था। रमजान के दिनों में जहाँगीर प्रतिदिन दो दफा दरबार करता और सबके सामने खाता पीता तथा मुल्लाओं को तंग करता था, और अपने हाथ से खाना देता जिसे दर्बारी कायदे के मुताबिक अदब से लेकर उन्हें खाना पड़ता था। बादशाह की इस प्रणाली की अवज्ञा करने से भय था कि वे आदमी शेरों से फड़वा दिये जाय, जो दर्बार के नजदीक बँधे रहते थे।

बादशाह नश्तरों से भरे एक बर्तन को अपने पास रखता था। यदि कोई व्यक्ति उसके सामने वीरता की डींग हाँकता तो नश्तर से उसकी नाक में छेद करा देता, इस पर यदि वह कष्ट प्रकट करता तो उसे मुक्कों से पिटवाकर बाहर निकलवा देता और यदि सह जाता तो दूनी तनखा कर देता। एक दफा एक दर्बारी ने शेर मारा और उसकी खाल का कोट पहन कर दर्बार में आया। यह देखकर बादशाह ने अपनी बन्दूक उठाई और अमीर को निशाना बनाया। वह बेचारा चिल्लाकर गिरा। गोली टाँगों में लगी थी, बादशाह बोला--यदि मैं इस शेर को न मारता तो मेरा शेर जोश में आ जाता। यदि कोई नवयुवक स्त्रियों का अत्यन्त प्रेमी होता तो बादशाह उसे पकड़कर किसी नीच जाति की मैली और गन्दी स्त्री के साथ कई दिन तक बन्द रखता था।