सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१५५
अलंकार


शब्दार्थ—मोहिलई—मोहित करली। नीरजसी—कमल के समान। बड़री—बड़ी। सारिवा—मैना। सरासिका—सारसी (मादा सारस)

१९—अपन्हुति
दोहा

मन को अरथ छिपाइये, औरे अर्थ प्रकास।
श्लेष बचन काकु स्वरनि, कहत अपन्हुति तास॥

शब्दार्थ—तास—उसे

भावार्थ—मनका अर्थ छिपा कर जहाँ दूसरा अर्थ (काकु अथवा श्लेष) से प्रकट किया जाय वहाँ अपन्हुति अलंकार होता है।

उदाहरण
सवैया

हौहीं हौ और कि ये सब और कि, डोलत आजु कौ औरे समीरौ।
यातें इन्हें तन ताप सिरातु पै, मेरे हिये न थिरातु है धीरौ॥
ये कहैं कोकिल कूक भली, मुहि कान सुने जम आवतु नीरौ।
लोग ससी को सराहतरी सब, तोहूँ लगै सखी सांचैहू सीरौ॥

शब्दार्थ—सिरातु—ठंडा होता है। थिरातु..धीरौ—धैर्य नहीं रहता। कान..नीरौ—सुनते ही ऐसा जान पड़ा है मानो यम पास आ गया अर्थात् कोयल की वाणी अत्यन्त बुरी लगती है। साँचै हूँ—सचमुच ही। सीरौ—ठंडा।