सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
४८
भाव-विलास


शब्दार्थ—सापने में—स्वप्न में। मेरोइ—मेरा ही। पकरो पट—कपड़ा पकड़ लिया। तौ लगि तब तक। रम्हाइ उठी—रँभाने लगी। दथि को घट—दही की हाँड़ी। चौंकि....तट चौक पड़ने पर देखा कि न कहीं कृष्ण है न कदम्ब है, न, कुंज है और न यमुना का किनारा ही है।

२४—क्रोध
दोहा

अधिक्षेप अपमान ते, स्वेद कंप दृगराग।
अहंकार जिय में बढ़ै, क्रोध सुनहु बड़ भाग॥

शब्दार्थ—स्वेद—पसीना। दृग—आँखें।

भावार्थ—अपमानदि के कारण हृदय में गर्व का भाव उदय होकर काँपने आदि की क्रियाएँ क्रोध कहलाती है।

उदाहरण
सवैया

देव मनावत मोहन जू, कब के मनुहारि करैं ललचौहैं।
बातें बनाय सुनावैं सखी, सब तातें औसीरी रसौहैं रिसौहैं॥
नाह सो नेह तऊ तरुनी, तजि राति बितौति चितौतिन सौ हैं।
मानत नाहिं तिरीछेहि तानति, बान सी आँखें कमान सी भौहैं॥

शब्दार्थ—मनुहारि—विनता। नाह—पति। तऊ—तौ भी। राति—रात्रि। बितौति—बिताती है। मानति नाहिं—नहीं मानती। तिरछेहि—तानति-टेढ़ी भौंहे करती है। बानसी आँखें—वाण के समान नेत्र। कमान सी भौहैं—कमान के समान भौहैं।