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पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/९५

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वियोग शृंगार


यातें न अन्हाई जरै जोतन जुन्हाई तातें,
चितै चहुँ ओर-देव कहै यह हहरी॥
बारिज बरत बिन वारें बारि बारु बीच,
बीच बीच बिचिका मरीचिका सी छहरी।
चरण मारतण्ड कै अखण्ड बृजमण्डल है,
कातिक की राति किधों जेठ की दुपहरी॥

शब्दार्थ—बिरह के घाम ताई—बिरह रूपी घाम से तपी हुई। पाई प्रतिकूल—उलटा पाया। कालिदी की लहरी—यमुना की लहरों को। चहुं ओर—चारो ओर। बारिज—कमल। बार—बालू। मरीचिका—मृगतृष्णा। किधौं—या, अथवा।

मान वर्णन
दोहा

पति परपतिनी रति करत, पतिनी करति जु मान।
गुरु मध्यम लघु भेद करि, ताहू त्रिविध बखान॥
पति पर परतिय चिह्न लखि, करति त्रिया गुरु मान।
मध्यम ताको नाम सुनि, ता दरसन लघु जान॥

शब्दार्थ—सरल है।

भावार्थ—अपने पति को दूसरे की स्त्री से प्रेम करते देखकर जो क्रोध करती है उसे मान कहते हैं। यह तीन तरह का होता है—गुरु, मध्यम और—लघु। दूसरे की स्त्री से रति करने के चिह्न देखकर जो मान स्त्री करती है वह गुरु, उसकी प्रशंसा सुनकर जो मान करती है वह मध्यम और उसे देखते हुए देखकर जो मान करती है वह लघु मान कहलाता है।