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पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/१७

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- . किए गए हैं - शब्दालंकार और अर्थालंकार । जो अलंकार दोनों ही द्वारा विशेषता प्रकट करते हैं वे उभयालंकार कहलाते हैं। अलंकार की परिभाषा कई प्रकार से की जाती है, जिनमें से दो का यहाँ उल्लेख कर दिया जाता है। स्थित रस के गुणों की शब्द और अर्थ द्वारा जिस शैली से विशेषता प्रकट की जाय उसे अलंकार कहते हैं शोभा को बढ़नोवाले तथा रस आदि का उत्कर्ष करने वाले शब्द और अर्थ के अस्थिर धर्म को अलंकार कहते हैं। शब्दालंकार यह है, जिसमें केवल शब्दों ही का सौंदर्य हो । ये पाँच प्रकार के माने गए हैं-वक्रोक्ति, अनुप्रास, यमक, श्लेष और चित्र । आधुनिक ग्रंथकारों ने इनमें से दो वक्रोक्ति और श्लेष को अर्थालंकार ही में परिगणित किया है और भाषाभूषण में भी इसी का अनुसरण किया गया है। प्रथम चार के और उदा- हरण इस ग्रंथ में दिए गए हैं । अंतिम चित्रालंकार वह है जिससे वर्णों तथा शब्दों के निबंध से खड्ग, रथ आदि अनेक के चित्र बनाये जाते हैं । अक्षरों तथा शब्दों को किसी क्रम से बैठाने के कष्ट कौशल को दिखाना हो इसमें अभिप्रेत रहता है जिससे शब्दों में तोड़ मरोड़ तथा अथ में अस्वा- भाविकता सी आ जाती है और कभी कभी माधुर्य का नाश हो जाता है चित्रालंकार का एक उदाहरण बा० गोपालचन्द्र उपनाम गिरधरदास कृत जरासंध वध से, जो अश्वबंध है, उद्धृत किया जाता है । मुख चारु चारु कान कलगी नकासीदार नैन सुखमा बनै न कहत सुहावनी । गलन गगन लग रहे रुचि चिरुहेर ठगै कवि मति पीठ जीन जीव भावनी ॥ 'गिरिधरदास' तैसी पुच्छ पुष्ट दुमची है चारु चारुजामे जामे सरस प्रभावनी । सुभ सुमती के से कुसुम सुमनसे प्यारे पद पद पर को विपद पद बावनी ॥ इन शब्दालंकारों के अनेक उपभेद भी हैं, जिनमें कुछ का उल्लेख इस ग्रंथ में हुअा भी है । अर्थालंकारों की संख्या बहुत अधिक है और इन्हें श्रेणीबद्ध करने का कोई उद्योग भी नहीं किया गया है। परंतु इन अलंकारों को उनके अंतसिद्धांतों के अनुसार कई श्रेणियों में विभाजित