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पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/२५

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( १५ ) ( भाषाभूषण ) छेका पहुँति जुक्ति करि पर सो बात दुराइ । करत अधर छत पिय नहीं, सखी ! सीतरितु बाइ॥ कैतवापद्भुति ( चन्द्रालोक) कैतवं ब्यज्यमानरवे व्याजाद्यनिहतेः पदैः । नियति स्मरनाराचा: कान्ताकपातकतवात् ॥ ( भाषाभूषण ) कैतवऽ पह्न ति एक कों मिसु करि बरनै श्रान । तोछन तीय-कटाछ-मिस बरषत मनमथ बान || एक और उदाहरण बीजिए जिसमें चन्द्रालोक के लक्षण के न मिलते भी उसके उदाहरण का कोरा अनुवाद इस ग्रंथ में दिया गया है। अत्युक्ति ( चन्द्रालोक ) अत्युक्तिरद्भुता तथ्य सार्योदार्यादिवर्णनम् । स्वयि दातरि राजेंद्र याचका. कल्पशाखिनः ॥ ( भाषाभूषण ) भलंकार प्रत्युक्ति यह बनत अतिसय रूप । याचक तेरे दान ते भए कक्षपतरु भुप ।। केवल उन्हीं श्लोकों का अर्थ दिया गया है जो भाषाभूषण के दोहों के सामानार्थी नहीं हैं पूर्वाल्लिखित श्लोकों तथा दोहों के मिलाने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भाषाभूपण की रचना चन्द्रालोक के आधार पर अवश्य हुई है पर अन्य ग्रंथों से भी सहायता ली गई है। साथ ही ग्रंथकार ने निज मस्तिष्क से भी काम लिया है। एक ही दोहे में लक्षण तथा उदाहरण