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पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/३७

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उपमा लागै पाचक धर्म रु बननिय है चौथो उपमान । इक बिन, द्वै बिन, तीन बिन लुप्तापमा प्रमान ॥ ४५ ॥ बिजुरी सी पंकजमुखी, कनकलता तिय लेषि। बनिता रस सुंगार की कारन-मूति पेषि ॥ ४६॥ [अनन्वय] उपमेयहि उपमान जब कहत अनन्वय ताहि । तेरे मुख की की जोड़ को तेरोही मुख प्राहि ॥४७॥ [ उपमानोपमेय] परसपर सो उपमानुपमेय । खंजन हैं तुम नैन से तुम दूग खंजन सेय ॥ ८ ॥ [पाँच प्रतीप] सो प्रतीप उपमेय को कीजै जब उपमानु । लोयन से अंबुज बने मुख सो चंद्र बखानु ॥ ४६॥ उपमे को उपमान ते प्रादर जव न हो । गरब करति मुख को कहा चंदहि नीकै जोइ ॥ ५० ॥ अनादर उपमेय तें जब पावै उपमान । तीवन नैन कटाच्छ ते मंद काम के बान ॥ ५१ ॥ उपमे को उपमान जब समता लायक नाहिं। अति उत्तम दूग मीन से कहे कौन बिधि जाहिं ॥ ५२ ॥ व्यर्थ होइ उपमान जब बननीय लखि सार । दूग प्रागे मृग कछु न ये पंच प्रतीप प्रकार ॥ ५३ ॥