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पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/६८

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( ३८ ) ६६१ और पावेग-इष्ट या अनिष्ट के अकस्मात् घटित होने से अातुरता । बोध-सुप्तावस्था से वाद्यादि के कारण चेतनावस्था में पाना । अमर्ष-तिरस्कार, आक्षेप या अपमान से उत्पन्न असहिष्णुता । ४३ --शब्द तथा अर्थ के संबंध से भाषा को सौंदर्य वृद्धि के अस्थिर धर्म को अलंकार कहते हैं और ये इन्हीं दो के संबंध से दो विभागों में बाँटे गए हैं --अर्थालंकार, शादालंकार । जिनमें दोनों का सम्मिलन होता है वे उभयालंकार कहलाते हैं। साहित्यदर्पण का० काव्यप्रकाश पृ. १८१ में वक्रोक्ति को शब्दालंकार माना है पर भाषा. भूषण ( दोहा १८८ में इसे अर्थालंकार माना गया यहाँ से अर्थालंकार प्रारंभ हुअा है और पहले उपमा का लक्षण तथा उदाहरण दिया गया है। दो वस्तुओं ( उपमान और उपमेय ) में भेद रहते हुए भी सादृश्य दिखलाने या समान धर्म बतलाने को उपमालंकार कहते हैं। इसके चार अंग हैं :- उपमेय-जिसकी उपमा दी जाय, वय, वर्णनीय । उपमान--वह वस्तु जिससे उपमा दी जाय अर्थात् जिसके समान दूसरी वस्तु बतलाई जाय । घाचक-उपमा प्रकट करने वाले शब्द, जैसे से, समान यादि । धर्म-साधारण या सामान्य धर्म जो दोनों में दिखलाया जाय । ४४-जिनमें समता के चारों अंग वर्तमान हों उसे पूपिमा कहते हैं । उसके दो उदाहरण इसमें दिए गए हैं, जैसे स्त्री का मुख चंद्रमा के समान उज्जवल है और हाथ नए पत्ते के समान मुलायम हैं। दोनों उदाहरण में उपमान, वाचक, धर्म और उपमेय एक ही क्रम से पाये हैं। ४५-४६-जिन उपमाओं में इन चार अंगों में से एक, दो या तीन न हों वे लुप्तोपमा कहलाते हैं। इसके तीन उदाहरण दिए गए हैं- .