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पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/७३

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( ४३ ) अभेद प्रतीति भी अतिशयोक्ति है और उत्प्रेक्षा से इससे यह भिन्नता है कि उसमें अनिश्चित रूप से कथन रहता है । इसके सात भेद दिए गए हैं। - (१) रूपकातिशयोक्ति--जब केवल प्रसिद्ध उपमान ही का वर्णन किया जाय और उसके द्वारा उपमेय लक्षित करा दिया जाय । जैसे, एक धनुष ( भ्र ) और दो बाण ( कटाक्ष । लिए चंद्रमा ( मुख ) कनकलता ( पीत वण शरीर ) पर शोभित है। ( २ ) सापवातियोक्ति-जब निषेधपूर्वक एक का गुण दूसरे पर पारोपित किया जाय । जैसे, अमत तो तुम्हारे मुख में है पर पागल होकर लोग चंद्रमा में बतलाते हैं। ( ३ ) भेदकातिशयोक्ति-जव उसी जाति या प्रकार की वस्तुओं में से किसी एक में अत्यंत भेद दिखलाया जाय । जैसे उसका हँसना, चलना और बातचीत करना सब से भिन्न है ( अर्थात् उत्तम है ) । ( ४ ; संबंधानिये क्ति-----संबंध ( अयोग्य ) में संबंध (योग्यता) दिखलाना । जैसे, लोग कहते हैं कि इस नगर के गृह चंद्रमा तक ऊँचे हैं । घरों और चंद्रमा को उच्चता का कोई संबंध नहीं है पर वैसा दिखलाया गया है। ) असंबंधाशियोक्त-संबंध (योग्य) को असंबंध (अयोग्य) दिखलाना । जैसे, तुम्हारे हाथ के श्रागे कल्पतरु कैसे सम्मानित हो सकता है। भाषाभूपणकार ने इसी को दूसरी संबंधातिशयोकि लिखा है। दानी का हाथ और कल्पतरु दोनों का संबंध ठीक है पर असंबंध दिखलाया गया है। ( ६ ) अक्रमातिशयोक्ति-जब कारण तथा कार्य साथ ही होते कहे जाय । जैसे, तुम्हारे तोर धनुष तथा शत्रु के शरीर में साथ ही लगते हैं । धनुप पर तीर चढ़ाने ही से वे शत्रु की ओर चलाए जा सकते हैं इसलिए चढ़ाना कारण पहिले और शत्रु तक तीर का पहुँचना कार्य बाद (