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पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/८१

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- ( ५१ ) १०६.१०८-भाषाभूषण में श्राक्षेप तीन प्रकार के बतलाए गए हैं पर उनको परिभाषा नहीं दी गई है । साहित्य दर्पण के लक्षण के अनुसार जो परिभाषा डा० निरसन ने लालचंद्रिका में दिया है वह मूल से भिन्न है। संक्षेप में आक्षेप उसे कहते हैं जिसमें व्यंग्य या ध्वनि की सूचना निषेधात्मक वर्णन द्वारा विशेष रूप से मिले । आक्षेप तीन प्रकार का है- ( १ ) जिसमें निषेध का श्राभास हो । जैसे, मैं दूतो नहीं हूँ, नायिका को शरीर अग्नि से अधिक तप्त है। दूतो दिख जाती है कि नायिका का शरीर इतना तप्त है कि कोई उसके पास जाकर दूनीव नहीं कर सकता पर यह निषेध का श्राभास मात्र है क्योंकि यदि वह दूनी नहीं होकर आई थी तो उसे नायिका की दशा का ज्ञान कैसे हुआ और उस दशा के कथन की उसे क्या आवश्यकता थी। साथ ही दूतोव के निषेध का भी प्राशय है कि दूतियाँ बातें बढ़ाकर कहने वाली होती हैं, इससे वह दूतो न बनकर स्पष्टवक्ता बनती है । (२) पहले कुछ कह कर उसका निषेध करना । जैसे. चंद्र दर्शन दे वा ( कुछ काम नहीं चंद्रमुग्यो ) स्त्री का मुख ( पास ही ) है ( ३ ) इस प्रकार कहना कि निषेध गुप्त रूप में हो। जैसे, (हे प्रिय) जाओ, पर परमेश्वर मुझे वहीं जन्म दे जिस देश को तुम जा रहे हो । प्रगट में यहाँ श्राज्ञा मिल गई है पर यह व्यंग्य है कि जिस देश में तुम जा रहे हो वहीं परमेश्वर मुझे जन्म दे अर्थात् तुम्हारे विरह में मेरी मृत्यु अवश्य हो जायगी तब परमेश्वर मुझे उस देश में जन्म देकर तुमसे मिलावे । अर्थात् गुप्त रूप से निषेध है। १०६-जब केवल विरोध का श्राभाय मात्र हो । जैसे, हे प्राणपति, वहाँ ( अन्यत्री में ) रत हो और प्रेयसी मन से ( यहाँ भी ) नहीं उतरती। यहाँ उतरत हो और उतरत नहीं में विरोध का श्राभास मात्र है। वास्तविक नहीं है। इसे विरोध भी कहते हैं और जाति, क्रिया, गुण तथा द्रव्य के विरोध से यह दस प्रकार का होता है।