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पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/२५

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सापा का पन्न

हँस पड़ी। शालिवाहन कटकर रह गए। संस्कृत सीखने की ठान ली। शालिवाहन की सभा में गुणाव्य नामक एक पंडित थे। संस्कृत-शिक्षा के लिये राजा का उन पर ध्यान गया। इसके लिये उन्हें ६ वर्ष की आवश्यकता पड़ी। सौभाग्य से वहीं शर्व- वर्मा भी मौजूद थे। उन्होंने ६ महीने में संस्कृत सिखा देने का दावा किया और इसके लिये एक कातंत्र नामक व्याकरण भी रच डाला। राजा को प्रसन्न करने के लिये गुणाढ्य ने पैशाची प्राकृत में 'चड्डकहा' का सृजन किया। प्रकृत प्रवाद में पते की बात यह है कि गुणाढ्य ने महाराष्ट्री में रचना करना पसंद नहीं किया। बल्कि उससे भिन्न एक दूसरी प्राकृत अर्थात् पैशाची में एक बृहत्कथा' रची। कारण प्रत्यक्ष है! पैशाची शालिवाहन की जन्मभापा थी। शका- दिकों के साथ उसका भी प्रवेश दक्षिण में हो गया था। शालि- चाहन की औरस ममता उसी के साथ थी। निदान गुणाढ्य ने प्रतिष्ठा-प्राप्ति के लिये पैशाची की शरण ली और उसकी कृपा से. वे सफल-मनोरथ भी हो गए। पैशाची के इस प्रकर्ष को देखकर सहसा यह न समझ लेना चाहिए कि कभी वही भारत की मानुषी राष्ट्रभाषा थी। पैशाची को हम कुछ काल के लिये व्यापक राजभाषा के रूप. में पाते "अवश्य हैं, पर इसी से उसे कभी व्यवस्थित राष्ट्रभाषा कह नहीं सकते। हाँ, शकादि शासकों के साथ मध्य तथा दक्षिण भारत में उसका प्रवेश हो गया और फलतः कहीं कहीं की वही प्रधान