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पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/८९

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भाषा का प्रश्न होता भी कैसे ? इधर हिंदुस्तानी के विषय में जो कुछ कहा जाता है, वह सचमुच भूल-भुलैया या धोखे की टट्टी है। उधर उर्दू में जो कुछ लिखा गया, वह भ्रामक और उदंडता-पूर्ण है। फिर किसी को सचाई का बोध हो तो कैसे। सुनिए, बनारस के राजा शिवप्रसाद सितारोहिंद क्या कहते हैं। चे तो 'नागरी के प्रेमी और उदार हिंदू हैं। उनका साफ साफ कहना है- 'जब यह जवान फारसी हरमों में लिखी जाती है वित्तखसीस उर्दू और हिंदुस्तानी कहाती है ताकि हिंदी ख्वाह भाखा कहने से देवनागरी हरमों का शुबह न हो, हिंदी का लफ्ज़ देवनागरी ही में लिखी जवान से मखसूस किया गया है।" तो क्या कांग्रेस के कर्णधारों अथवा महात्मा गांधी ने उसी हिंदुस्तानी की राष्ट्रभाषा के रूप में पैरवी की, जो फारसी लिपि में लिखी जाती अर्थात उर्दू है? कदापि नहीं। उसको तो उन्होंने उसी तरह मुसलमानों की जवान कह दिया है, जिस तरह सर सैयद अहमदखाँ वहादुर ने अपनी सचाई कह दिया था, पर बाद में राजनीति के चक्र के कारण उसे 'मुश्तरकः जवान' कहना शुरू कर दिया। सन् १८४७ ई० की बात है। उस समय देहली-दरवार जीवित था १-उर्दू सर्फ व नहो, नवलकिशोर प्रेस कानपुर, सन् १८७५ ई०, पृ०२१