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पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२०८

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[ ११७ ] पुनः-कवित्त मनहरण आजु सिवराज महाराज एक तुही सरनागत जनन को दिवैया अभैदान को। फैलो महिमंडल बड़ाई चहुँ ओर ताते कहिए कहाँ लौं ऐसे बड़े परिमान को ? ॥ निपट गंभीर कोऊ लाँघि न सकत बीर जोधन को रन देत जैसे भाऊ' खान को। दिल दरियाव क्यों न कहें कविराव तोहि तो मैं ठहरात आनि पानिप जहान को ॥ ३४६॥ हेतु ___ लक्षण-दोहा "या निमित्त यहई भयो” यो जहँ वरनन होय । भूपन हेतु बखानही कवि कोबिद सब कोय ।। ३४७ ।। उदाहरण-मनहरण दंडक दामन दइत हरनाकुस विदारिये को भयो नरसिंह रूप तेज विकरार है। भूपन भनत त्योंही रावन के मारिवे को रामचंद्र भयो रघुकुल सरदार है। कंस के कुटिल बल वंसन 1 भाऊसिंह के विषय में छंद नं० २५. का नोट देखिए। इन्हें "भाऊखान" वैसे हो कहा गया है जैसे अंबर (जयपुर) के महाराज जयसिंह "मिर्जा" कहाते थे। वास्तव में माऊ खाँ नामक कोई मुसलमान सरदार न था। सम्भव है कि भाऊ और खान दोनों का यहाँ कथन हो।

  • प्रथम हेतु में कार्य का कारण के साथ ही कथन होता है और द्वितीय में कार्य

कारण अभेद होते हैं। जैसे कर्तव्य में स्थिति हो ईश्वर की कृपा है। भूषण ने एक हो हेतु कहा है।