सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[ १२३ ] लिय जिति दिल्ली मुलुक सब सिव सरजा जुरि जंग । भनि भूषन भूपति भजे भंगग्गरब तिलंग ॥ भंगग्गरन तिलंगग्गयउ कलिंगग्गलि अति । दुन्ददवि दुहु दंदद्दलनि' बुलंददहसति ॥ . लच्छच्छिन करि म्लेच्छच्छय किय रच्छच्छवि छिति ।। हल्लल्लगि नरपल्लल्लरि परनल्लल्लिय६ जिति ।। ३५७ ।। पुनः-छप्पय मुंड कटत कहुँ रुंड नटत कहुँ सुंड पटत घन । गिद्ध लसत कहुँ सिद्ध हँसत सुख वृद्धि रसत मन ॥ भूत फिरत करि बृत भिरत सुर दूत घिरत तहँ । चंडि नचत गन मंडि रचत धुनि १ युद्ध में दब कर दोनों दलों ( तिलंग और कलिंग ) को दंद ( दुःख ) हुआ। तिलंग और कलिंग उस समय गोलकुंडा के राज्य में थे। यह वर्णन सन् १६७०-७२ का है, जब गोलकुंडा दबकर आपको कर देने लगा था । तिलंग का कोई स्वतंत्र राजा न था वरन् गोलकुंडा के अधीनस्थ राजे भागे होंगे। १६७०-७२ में शिवाजो ने गोलकुंडा के सब प्रान्त लूटे और स्वयं सुल्तान से एक करोड़ रुपए लूट में लिए। २ बड़ा डर हुआ। ३ क्षण भर में लाखों म्लेच्छों का क्षय करके। ४ भूमि ( भारत भूमि ) की छबि की रक्षा की। ५ हल्ला ( धावा) कर। ६ परनाले ( छंद १०७ का नोट देखिये) को जीत लिया।