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पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२४०

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[ १४९ ] यों पहिले उमराय लरे रन जेर किये जसवन्त अजूबा । साइतखाँ अरु दाउदखाँ पुनि हारि दिलेर मोहम्मद डूबा ॥ भूपन देखे वहादुर खाँ पुनि आय महावत खाँ अति उवा । सूखत जानि सिवाजि के तेजसों पानसे फेरत नौरंग सूबा ॥३८॥ वारिध के कुंभभव घन बन दावानल तरुन तिमिर हू के किरन समाज हो। कंस के कन्हैया कामधेनु हू के कंटकाल' कैटभ के कालिका विहंगम के बाज हौ ।। भूपन भनत जग जालिम के सचीपति पन्नग के कुल के प्रबल पच्छिराज हो । रावन के राम कार्तवीज के परसुराम दिल्लीपति दिग्गज के सेर सिवराज हौ२ ॥ ३९ ॥ ____दर बर दौरि करि नगर उजारि डारि कटक कटाई कोटि दुजन दरब की। जाहिर जहान जंग जालिम है जोरावर चले न कछूक अब एक राजा रब की ॥ सिवराज तेरे त्रास दिल्ली भयो भुवकंप थर थर काँपति विलायति अरब" की। हालत दहलि जात काबुल कँधार वीर रोप करि काढ़े समसेर ज्यों . गरब की ॥४०॥ १ काँटों का धर। २ समाभेद रूपक । ३ दुर्जन के द्रव्य से इकट्ठी की हुई सेना कटवा डाला। ४ राव । ५ अरव की विलायत थर थर काँपतो है। ६ अहंकार की अथवा पच्छिम [ मगरिब.] को तलवार । ' ७ यह छंद स्फुट कविता से आया है।