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पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१४७

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भ्रमरगीत-सार
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करिहौं न तुमसों मान हठ, हठिहौं न माँगत दान।
कहिहौं न मृदु मुरली बजावन, करन तुमसों गान॥
कहिहौं न चरनन देन जावक, गुहन बेनी फूल।
कहिहौं न करन सिंगार बट-तर, बसन जमुना-कूल॥
भुज भूषननयुत कंध धरिकै रास नृत्य न कराउँ।
हौं संकेत-निकुंज बसिकै दूति-मुख न बुलाउँ।
एक बार जु दरस दिखवहु प्रीति-पंथ बसाय।
चँवर करौं, चढ़ाय आसन, नयन अंग अंग लाय॥
देहु दरसन नंदनंदन मिलन ही की आस।
सूर प्रभु की कुँवर-छंबि को मरत लोचन प्यास॥१६३॥


राग सारंग
कबहूँ सुधि करत गोपाल हमारी?

पूछत नंद पिता ऊधो सों अरु जसुमति महतारी॥
कबहुँ तौ चूक परी अनजानत, कह अबके पछिताने?
बासुदेव घर-भीतर आए हम अहीर नहिं जाने॥
पहिले गरग कह्यो हो हमसों, 'या देखे जनि भूलै'।
सूरदास स्वामी के बिछुरे राति-दिवस उर सूलै॥१६४॥


राग बिलावल
भली बात सुनियत हैं आज।

कोऊ कमलनयन पठयो है तन बनाय अपनो सो साज॥
बूझौ सखा कहौ कैसे कै, अब नाहीं कीबे कछु काज।
कंस मारि बसुदेव गृह आने, उग्रसेन को दीनो राज॥
राजा भए कहाँ है यह सुख, सुरभि-संग बन गोप-समाज?
अब जो सूर करौ कोउ कोटिक नाहिंन कान्ह रहत ब्रज आज॥१६५॥