सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
भ्रमरगीत-सार
 

गोचारन को चलत हमारे पाछे कोसक धाए॥
ये बसुदेव देवकी हमसों कहत आपने जाए।
बहुरि बिधाता जसुमतिजू के हमहिं न गोद खिलाए॥
कौन काज यह राज, नगर को सब सुख सों सुख पाए?
सूरदास ब्रज समाधान[१] कर आजु काल्हि हम आए॥२॥


राग बिलावल
तबहिं उपँगसुत[२] आय गए।

सखा सखा कछु अंतर नाहीं भरि भरि अंक लए॥
अति सुंदर तन स्याम सरीखो देखत हरि पछिताने।
ऐसे को वैसी बुधि होती ब्रज पठवैं तब आने॥
या आगे रस-काब्य प्रकासे जोग-बचन प्रगटावै।
सूर ज्ञान दृढ़ याके हिरदय युबतिन जोग सिखावै॥३॥


हरि गोकुल की प्रीति चलाई।

सुनहु उपँगसुत मोहिं न बिसरत ब्रजबासी सुखदाई॥
यह चित होत जाउँ मैं अबही, यहाँ नहीं मन लागत।
गोप सुग्वाल गाय बन चारत अति दुख पायो त्यागत॥
कहँ माखन चोरी? कह जसुमति 'पूत जेंव' करि प्रेम।
सूर स्याम के बचन सहित[३] सुनि ब्यापत आपन नेम॥४॥


राग रामकली
जदुपति लख्यो तेहि मुसकात।

कहत हम मन रही जोई सोइ भई यह बात॥
बचन परगट करन लागे प्रेम-कथा चलाय।


  1. समाधान=प्रबोध, तसल्ली।
  2. उपँगसुत= उद्धव।
  3. सहित=हित या प्रेम युक्त।