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पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/४३०

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अष्टमाऽध्याय ४२७ अदातरि पुनर्दाता विज्ञातप्रकृतावृणम् । पश्चालतिभुवि पते परीप्सेत्केन हेतुना ॥१६१॥ निरादिष्टधनश्चेत्तु प्रतिभूः स्याद लंधनः । स्वधनादेव तयानिरादिष्ट इति स्थितिः ॥१६२।। अदाता प्रतिमू (जिसने देने की जमानत न की हो किन्तु अधमर्ण को सामने कर देना मात्र स्वीकार किया हो) जिसकी प्रतिज्ञा दाता ने जान भी रक्खी है (कि वह देने का प्रतिमू नहीं वना था) उसके मर जाने के पश्चात् (उस के पुत्रादि दायादो से) दाता अपना ऋण किस हेतु से पाना चाहे ? (किसी से भी नहीं) ॥१६॥ यदि [प्रतिमू] (जामिन) को अधमर्ण रुपया सौंप गया हो इसलिये प्रतिभू के पास वह रुपया हो पर अधमर्ण ने आधा नदी हो [कि तुम उत्तमर्ण को दे देना तो पह] निरदिष्ट प्रतिसू (जामिन) अपने पास अवश्य उत्तमर्ण का ऋण देवे यह निर्णय है ॥१६शी मचोन्मचाध्यिधीन लेन स्थविरेण वा । असंबद्धकृतश्चैव व्यवहारो न सिध्यति ॥१६३।। सत्या न भाषा भवति यद्यपि स्यात् प्रतिष्ठिता । बहिश्चेद्भाष्यते धर्मानियताद्वयावहारिकात् ॥१६॥ मत्त, उन्मत्त, आर्च परतन्त्र, घाल और वृद्धो का तथा पूर्वा- पर विरुद्ध किया हुवा व्यवहार सिद्ध नहीं होता ॥१६शा आपस की भाषा शर्त व इकरार) चाहे लिखा पढी से वा जवानी ठहरी भी हो तो भी यदि धर्म (कानून) या परम्परा के रिवाज के विरुद्ध ठहरी होतो सच्चीनही मानी जाती ॥१६४||