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पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/५७२

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दशमाऽध्याय वर्ण महरो के नीच तथा निन्दित काम राजद्वारा नियत किये हैं जिस से उन की नीच दशाको देख कर अन्यों को नीचल के भयके कारण व्यभिचारादि से घिन हो) MET वर्णापतमविज्ञातं नरं कलुपयोनिजम् । आर्यरूपमित्रानायं कर्मभिः स्वैर्विभावयेत् ॥५७॥ अनार्यता निष्ठुरता करता निष्क्रियात्मता । पुरुष व्यञ्जयन्तीह लोके कछुपयोनिजम् ।।५८॥ (सङ्कर से हुवे) ख बदले और नहीं पहचाने जाते हुवे देखने में आर्य से परन्तु यथार्थ मे अनार्य अधम पुरुष का निज र कामो में निश्चय करे ।।५असभ्यपन और कठोर भापणशीलता तथा कर्मानुष्ठान से रहितता ये लक्षण इस लोकमे नीचयोनिज पुरुष को प्रकट करते है ।।५८॥ पित्र्यं वा भजते शीलं मातु भयमेव वा । न कथंचन दुनि प्रकृति स्वां नियच्छति ॥५६॥ कुले मुख्येऽपि जातस्य यस्य स्यायोनिसङ्करः । संश्रयत्येव तच्छीलं नरोल्पमपि वा बहु ।।६०|| यह वर्ण सङ्कर से उत्पन्न हुवा पुरुष, पितृसम्बन्धी दुष्ट स्वभाव अथवा माता का या दोनो का स्वभाव स्वीकार करता है किन्तु अपनी असलियत छिपा नहीं सकता ।।५९॥ बड़े कुलमे उत्पन्न हुवे का भी जिस का योनि से सङ्कर (ढका छिपा) हुवा है वह मनुष्य योनि का स्वभाव थोड़ा या बहुत पकड़ता ही है ।।६०॥ यत्र त्वेते परिष्वन्सान्जायन्ते वर्णदुपकाः । ७२