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पृष्ठ:मनुस्मृति.pdf/६५८

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द्वादशाऽध्याय ६५५ जाना जाता है ।।१३।। वे दोनो महान् और क्षेत्रज्ञ जो कि पृथिव्यादि पञ्चभूतो से मिले हुवे हैं, ऊँच नीच सब भूतों मे स्थित उस (परमात्मा) के प्राश्रय रहते हैं। (१४ वें से आगे एक श्लोक तीन पुस्तको मे मिलता है और वह इमी प्रकरण में गीता में भी आया है । गीना से मनु प्राचीन है। इस लिये कदाचित् मनु से गीता मे गया हो । यहाँ अन्तः करण शरीर और जीवात्मा का वर्णन किया तो साथ में प्रसङ्गो पयोगी १४ वे श्लोकोत "तम्" पढवाच्य परमात्मा के वर्णन की आवश्यकता भी थी। अनुमान है कि यह श्लोक वास्तव में हो. पीछे जाता रहा हो वा अतियों ने निकाल दिया हो । (उत्तमः पुरुपस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । योलोकत्रयमाविश्य विमर्त्यव्ययईश्वरः ।।) उत्तम पुरुष तो अन्य है जो "परमात्मा कहाता है और जो तीन लाकों में प्रवृष्ट समर्थ और अविनाशी होने से इनका धारण पोपण करता है। अगले २५ मे भी उसी का प्रसङ्ग है ॥१४॥ असंख्या मूर्चयस्तस्य निप्पतन्ति शरीरतः । उच्चावचानि भूतानि सतत चेष्टयन्ति या. ॥१५॥ पञ्चम्य एव मात्राभ्यः प्रत्य दुष्कृतिनां नृणाम् । शरीरं यातनार्थीयमन्यदुत्पद्यते ध्रुवम् ॥१६॥ उस (परमात्मा) के शरीर तुल्य पञ्चभूत समुदाय से असंख्य शरीर निकलते हैं जो कि उत्कृष्ट निकृष्ट प्राणियों को निरन्तर कर्म कराते हैं ।।१५|| दुष्ट कर्म करने वाले मनुष्यों को मर कर पञ्चतन्मात्रा से दुःख सहन करने के लिये दूसरा शरीर अवश्य उत्पन्न होता है ॥१६॥