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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२५३

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  • विवाह-संस्था।

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- - - - कारणीभूत है। पाश्चात्य समाजमें ऐसा यहाँतक जो विवेचन किया गया है बन्धन कहीं दृग्गोचर नहीं होता । महा- उससे पाठक इस बातकी कल्पना कर भारतके अन्य श्लोकोसे भी यह अनु- सकेंगे कि प्राचीन कालसे लेकर महा- मान होता है कि भारतीय आर्योकी भारतके समयतक विवाहकी उत्तरोत्तर भावनाके अनुसार प्रत्येक स्त्रीका विवाह उत्क्रान्ति किस प्रकार हुई थी और किस हो जाना ही आवश्यक था । उपर्युक्त तरहसे उसको उदात्त स्वरूप प्राप्त हो वचनमें स्पष्ट कह दिया गया है कि जिस गया। उस समय समाजमें ग्रहस्थीका लड़कीका विवाह नहीं होता उसके लिये बन्धन उत्तम रीतिसे व्यवस्थित हो गया परलोक-प्राप्ति नहीं है। था। उसकी कला इन नियमोंसे षड असंस्कृतायाः कन्यायाः थी:-सभी स्त्रियोंका विवाह अवश्य कुतो लोकास्तवानघे। । होना चाहिये: विवाहके समय स्त्रियाँ प्रौढ़ जिस स्त्रीने विवाह नहीं किया और होनी चाहिएँ : उनका कन्यात्व किसी केवल तप किया, उसे तपके द्वारा भी तरह दूषित न हो गया हो: विवाहवाली परलोक-प्राप्ति होनेकी नहीं। यह सिद्धान्त : गतको ही पति-पत्नीका समागम हो स्थिर था। इस वचनका सुलभाकी कथा- जाय: एक बार पतिसे समागम होने पर से जरासा विरोध देख पड़ता है। जैसा स्त्री उसीकी होकर रहे, उसे दूसरा पति कि पहले वर्णन किया जा चुका है, सुलभा ! करनेका अधिकार नहीं: अर्थात् पतिकी नामक क्षत्रिय संन्यासिनीको जनककी जीवितावस्था या उसके भर जाने पर राजसभामें हम देख चुके हैं। विवाहके स्त्रियोंके लिये पुनर्विवाहकी मनाही रहे। लिये योग्य भर्ता न मिलनेके कारण वह ' समाजमें पति-पत्नीके बीच अत्यन्त प्रेम नैष्ठिक ब्रह्मचर्यका आश्रय करके यतिधर्म- और संसारका सुख मजेमें निभता था। से रहती थी । (शां० अ० ३२०) यह कथा इसके सिवा उल्लिखित वर्णनसे यह भी पुराने ज़मानेकी होगी। बल्कि कहना निष्पन्न होता है कि वर्तमान समाजमें चाहिये कि उन दिनों स्त्रियोंको संन्यास-व्रत जो बड़ा भारी व्यङ्ग देख पड़ता है उसका ग्रहण करनेकी श्राशा थी; अथवा यह : तब अस्तित्व भी न था। अर्थात् महा- निर्णय करना होगा कि बिना संन्यास- भारतके समय बालविधवाओंका दुःख व्रत लिये ही सिर्फतप करनेका उन्हें अधि- समाजको मालूम न था। इस कारण तब कार नहीं । यह माननेमें कोई क्षति नहीं यह प्रश्न उपस्थित न हुआ था कि अनुप- कि महाभारतके समय सुलभा और गार्गी : भुक्त कन्या, विवाह होने पर, यदि विधवा आदि सरीखी ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ थी ही हो जाय तो क्या किया जाय । यहाँ पर नहीं । और उस समयमें, स्त्रियोंके लिये यही कह देना काफी है कि अनुपभुक्त आश्रमोका झगड़ा ही न था। ब्रह्मचर्य, बालविधवाओंका प्रश्न, उस समयके गार्हस्थ्य, संन्यास और वानप्रस्थ इन पश्चात् कई शताब्दियोंमें उपजा जबकि आश्रमोंकी जगह स्त्रियोंका मुख्य संस्कार बालविवाह होने लगा। विवाह ही है। उस ज़मानेमें यही अनेकपत्नी विवाह । . सिद्धान्त प्रस्थापित हो गया था और इस कारण सौतिके समय प्रत्येक स्त्रीका स्त्रियों के विवाह-सम्बन्धमें जैसे अनेक विवाह होता था। प्रशस्त मियम बन गये पैसा, पुरुषोंके